महर्षि रमण के बहाने ध्यान साधना की बात

महर्षि रमण के बहाने ध्यान साधना की बात

अमेरिका के ओहायो प्रांत के सिनसिनाटी हवाई अड्डे पर बोर्डिंग पास लेने और लगेज देने के लिए कतार लगी हुई थी। एक सज्जन कतार की परवाह किए बिना काउंटर पर पहुंच गए। ड्यूटी पर तैनात महिला कर्मचारी ने कतार से आने का आग्रह किया तो सज्जन आपे से बाहर हो गए। छूटते ही सवाल किया – आपको पता है कि मै कौन हूं? इसका जबाव देने के बदले महिला ने माइक से उद्घोषणा कर दी कि एक सज्जन मेरे काउंटर पर हैं। उन्हें नहीं पता कि वे कौन हैं। क्या कोई उनकी मदद कर सकता है? सद्गुरू जग्गी वासुदेव ने महर्षि रमण के प्रसंग में ही यह वाकया सुनाया था। पहली नजर में यह व्यंग्य लग सकता है। पर यह थी उच्चकोटि की आध्यात्मिक बात।

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सच है कि हम में से ज्यादातर लोगों को अपने बारे में पता ही नहीं होता। अज्ञानता और अहंकारपूर्ण व्यवहार हमें यह जानने का अवसर नहीं देता। जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारी इंद्रियां बाहर सब कुछ तलाश रही होती हैं। हमारा मन इंद्रियों का दास बना रहता है और बुद्धि-विवेक को दूर-दूर तक फटकने नहीं देता। पर संचित कर्मों की वजह से या किसी अन्य वजह से जब खुद से सवाल हो जाता है कि “मैं हूं कौन” तो आदमी महर्षि रमण तक बन जाता है। ऐसा न भी तो अलग जीवन-दृष्टि मिल ही जाती है। हवाई अड्डे की घटना में इस बात की झलक मिलती है। अहंकार का असर देखिए कि यात्री को पता नहीं था कि वे हैं कौन। दूसरी तरफ वह महिला थी, जो “मैं कौन हूं” का गूढ़ार्थ समझ रही थी। पता चला कि वह 20वीं शताब्दी भारत के महानतम योगी महर्षि रमण से बेहद प्रभावित थी।

आज महर्षि रमण की चर्चा बेमौके नहीं है। पूरी दुनिया में विश्व महायुद्ध के कुपरिणामों से भी गहरा घाव देने वाली कोविड-19 महामारी की वजह से जनता त्राहित्राहि कर रही है। संकट से उबरने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। आम से खास लोग तक अवसदग्रस्त हैं। योगी से वैज्ञानिक तक एक ही बात कह रहे हैं कि ध्यान का सहारा लो। ऐसे में महर्षि रमण की चर्चा न हो, ऐसा हो नहीं सकता। उन पर चर्चा के लिए एक अनुपम अवसर दूसरे कारण से भी है। तमिलनाडु में तिरुवण्णामलै स्थित अरूणाचल पर्वत के उस महान योगी का समाधि दिवस आज ही है। अपनी प्रबल ध्यान साधना की बदौलत प्रत्यक्ष तौर पर बिन गुरू आत्मज्ञान पाकर “मैं कौन हूं” का उत्तर अपने भीतर से प्राप्त करने वाले उस महान योगी को उनके समाधि दिवस पर शत्-शत् नमन। रमणाश्रम में समाधि दिवस को आराधना दिवस के रूप में हर वर्ष तमिल पंचांग के 'चित्तरै' माह के सातवें दिन मनाया जाता है| इस बार 20 अप्रैल को यह तिथि पड़ी है।

कहावत है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात। यह महर्षि रमण पर किशोरावस्था में परिलक्षित होने लगी थी। पर युवावस्था में पहुंचने से पहले ही उनके जीवन में ऐसी घटना घटित हुई कि असंभव क्रांति हो गई। अरूणाचल पर्वत पर ऐसा ध्यान लगा कि पता ही न चला कि उनके शरीर के साथ जीव-जंतु और कीड़े-मकोड़े कैसा व्यवहार कर रहे हैं। इस साधाना से “मैं कौन हूं” का जबाव मिला तो उनके ज्ञान का प्रकाश सर्वत्र फैल गया। उन्हें लोगों को प्रभावित करने के लिए न मार्केटिंग करनी पड़ी, न चमत्कार दिखाना पड़ा। पश्चिमी देशों में क्रियायोग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद महर्षि रमण से बेहद प्रभावित थे। उन्होंने एक बार महर्षि से सवाल पूछ लिया – “क्या योग पीड़ा हरण के लिए एंटीडॉट्स की तरह काम करता है?”  महर्षि का सीधा सरल उत्तर था – “यह पीड़ा से उबारने में मदद करता है।“

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इंग्लैंड के खोजी पत्रकार पॉल ब्रंटन पूर्वी जगत की आध्यात्मिक परंपराओं की खोज करते हुए रमणाश्रम पहुंच गए और महर्षि रमण की आडंबर रहित आध्यात्मिक शक्ति से इतने प्रभावित हुए थे कि वहीं ठहर गए। उनकी खोजी पत्रकारिता की अंतिम परिणति आध्यात्मिक जिज्ञासु के रूप मे हो गई। उन्होंने स्वदेश लौटकर पुस्तक लिखी – ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया। उससे पश्चिमी दुनिया को महर्षि रमण की ध्यान साधना से उत्पन्न अलौकिक ऊर्जा और आध्यात्मिक शक्ति के अद्भुत परिणामों का पता चला। साथ ही अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के बौनेपन का अहसास भी हुआ। फिर तो वहां वैज्ञानिक अध्यात्म का नया अध्याय शुरू हो गया।

बहरहाल, आज एक अवसर है, जब इस बात पर मंथन होना चाहिए कि पूरी दुनिया में जिस ध्यान या मेडिटेशन की बात हो रही है, उसका अभिप्राय क्या उसी ध्यान से है, जो आदमी तो आत्मज्ञान तक दिला देता है या कुछ और है। इस सवाल का उत्तर पाने से पहले योग की कुछ अन्य बुनियादी बातों की चर्चा जरूरी होगी। बिहार में दुनिया का पहला योग विश्वविद्यालय स्थापित करने वाले परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आम आदमी के जीवन को उत्तम बनाने के लिहाज से योग को मुख्यत: तीन भागों में बांटा है – शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। योग के शारीरिक पक्ष का संबंध हठयोग से, मानसिक पक्ष का संबंध राजयोग से और आध्यात्मिक पक्ष का संबंध क्रियायोग से है। योगशास्त्रों में योग की उच्चत्तर अवस्था तक पहुंचने के लिए क्रमिक साधना के मार्ग बतलाए गए हैं।

पर आधुनिक युग में महर्षि रमण और संन्यास परंपरा के कई योगियों ने अपनी प्रबल ध्यान साधना की बदौलत पहली और दूसरी कक्षा की पढ़ाई किए बिना डाक्टरेट की डिग्री हासिल कर ली थी। महर्षि रमण दूसरों को भी ध्यान साधना की शिक्षा ही देते थे। एक वाकया गौरतलब है। उनके भक्त केआर नांबियार ने सपना देखा – “गोवा से आए एक साधक श्रीधर पद्मासन पर बैठे प्राणायाम कर रहे हैं। महर्षि रमण वहां आते हैं और कहते हैं – सांस रोकने की इस कालाबाजी से कोई लाभ नहीं होना है। मैंने आत्म-चिंतन का जो मार्ग बतलाया था, वही सरल और उपयुक्त है।“ सुबह होने पर श्री नांबियार ने यह बात श्रीधर को बताई तो श्रीधर चौंक गए। कहा, मैं यही बात गुरूजी से पूछने वाला था। यानी प्रश्न करने से पहले उन्हें उत्तर मिल चुका था।

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आज जब सर्वत्र ध्यान की बात चल रही है तो निश्चित रूप से उसका अभिप्राय उस ध्यान से नहीं हो सकता, जो हमें आत्मज्ञान दिलाता है या जीवन-दृष्टि बदलता है। सच तो यह है कि सामान्य दिनों में भी हम ध्यान मानसिक स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए ही करते हैं। पर मौजूदा समय में वैसी साधना भी मुश्किल ही है। हमें कोई ऐसा उपाय चाहिए कि मानसिक उथल-पुथल कम जाए। सोचने-समझने की शक्ति मिल जाए। यानी मन के शिथिलीकरण की जरूरत है। इसके लिए “योगनिद्रा” उपयुक्त है। प्रत्याहार की क्रिया और ध्यान की पहली सीढ़ी। वही सध भी पाएगा। ध्यान की उच्चतर अवस्था प्राप्त हो जाए तो सोने पे सुहागा। वैसे, मौका मिले तो केद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के फिल्म डिविजन की फिल्म “श्री रमण महर्षि” और सीनेएफएक्स प्रोडक्शन की फिल्म “ज्ञानी – द साइलेंट सेज ऑफ अरूणाचल” देखनी चाहिए। प्रेरक हैं। बेहतरीन जीवन-दृष्टि मिलेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

 

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